सोमवार, 12 सितंबर 2016

सार्थक रहने दो शब्दों को --


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सार्थक रहने दो शब्दों को --

मत करो अर्थ-भ्रष्ट ,
 सार्थक-समर्थ  निर्मल रहने दो.

क्या  शब्द था - दिव्य !!!
जैसे प्रसन्न आकाश ,मुक्त,भव्य ,असीम .
कितना सार्थक त्रुटिहीन .

दिव्यांग बना डाला, 
उन्मुक्ति को अपाहिज कर डाला,
अपूर्ण ,विकल , विहीन.
घोर अपकर्ष
अर्थ का अनर्थ .

 बिंब-प्रतिबिंब-सा
 है,दृष्य और दृष्टि का संबंध .
पूर्ण कौन  यहाँ ?
कहीं न कहीं सब  अधूरे .
और यही विकलता की तड़प 
नये मार्ग खोल, 
नये अर्थों का  अवधान करती है.

साक्षात् मूर्त होकर 
नया अर्थोत्कर्ष पाते हैं शब्द,  
जैसे सूर!
अंधत्व का सूरत्व में समायोजन.
विलक्षण सामर्थ्य का उद्योतन.

जैसे रैदास,  
संज्ञा गरिमामयी हो उठे 
हीनता,गुरुता पा जाए  . 

एक और शब्द-हरिजन,
कितने सम्मान का पात्र रहा . 
 गिरा  डाला इसे भी -
खो बैठा वास्तविक अर्थ  और महिमा,
बन गया  आहत कृपाकांक्षी   . 
 विवर्ण ,विषण्ण श्री-हत.  

मत करो अर्थ-भ्रष्ट शब्दों को -
पूरे अर्थ के साथ दीप्त रहें वे,
आगत को संचित संस्कारों से मंडित कर,   

अपनी विद्यमानता से,
वाणी का भंडार भर,
चिरकाल धन्य करें !
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- प्रतिभा सक्सेना.