शनिवार, 19 सितंबर 2015

अनंग गंध

गंध-मुग्ध मृगी एक निज में बौराई,
विकल प्राण-मन अधीर भूली भरमाई .
कैसी उदंड गंध मंद नहीं होती,
जगती जो प्यास ,पल भर न चैन लेती .
*
भरमाती-भुलाती सभी भान डुबा लेती,


गुँजा रही प्राण मन  एक धुन अनोखी 
 मंत्रित-सी भाग चली  ,शूल-जाल घेरे ,
कौन दिशा ,कौन दशा, कौन पंथ हेरे !
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रुक-रुक के टोहती ,ले घ्राण पवन झोंके
शायद वह उत्स बना केन्द्र यहीं होवे.
एक ही अबंध-गंध रह रह के टेरे
मोह-अंध  दिशा-भूल फिर-फिर दे फेरे .
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चले आ रहे अमंद झोंक कस्तूरी
कैसी ये खोज कभी हो न सके  पूरी ,
चैन नहीं ,नींद नहीं, थिर न मन कहीं रे ,
कैसी उतावल पग पड़े नहीं धीरे .
*
एक अकुलाहट हर साँस-साँस घेरे
हरिनी री , जाने ना जो दुरंत घेरे .
ये अनंग गंध  नहीं कहीं त्राण देगी ,
रूँधेगी बोध सभी, खींच प्राण लेगी !
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गंध की तरंग किये सभी भान गूँगे
बावली री रुक जा, निज घ्राण कौन सूँघे .
पाने की चाह कभी हुई कहाँ पूरी,
सारी ही खोज रह जायगी अधूरी !
*