शनिवार, 28 जून 2014

पुनर्नवा

( यहाँ आज प्रस्तुत कर रही हूँ ,यह कविता 'पुनर्नवा' पूर्व-रचित है .)
*
दर्पण नहीं
स्वयं को देख रही हूँ
तुम्हारी आँखों से !
नई-सी लग रही हूँ ,
ऐसे देखा नहीं था कभी
अपने आप को .
*
तुम्हारी दृष्टि से आभासित ,
मोहक सी उजास
धूप-छाँह का सलोनापन
स्निग्ध हो छा गया
झेंप-झिझक  भरे मुखमंडल पर !
*
ये आनन्द-दीप्त लोचन मेरे हैं क्या ?
नासिका, होंठ ,धुले बिखरे केश ,
मांग की सिन्दूरी रेख ,

माथे पर कुछ बहकी-सी,
बिंदिया पर विहँसती :
 ऐसी हूँ मैं !
*
जानती नहीं थी .
निहारना अपने आप को !
देखती थी दर्पण 
ज्यों  परीक्षण कर रही होऊँ
सावधान सजग होकर .
पर, आज अभिषेक पा रही हूँ
दो नयनों के नेह- जल का,
पुलकित हो उठा रोम रोम !
*
तुम्हारी आँखों से अपने को देखना ,
एक नया अनुभव ,
नई अनुभूति जगा गया .
लगा स्वयंको पहली बार देखा ,
उत्सुक नयन भर .
लगा जैसे इस मुख की याद है ,
पर देख आज पा रही हूँ !
*
तुम्हारी दृष्टि ने
कोमलता का रेशमी आवरण
ओढ़ा दिया मुझे.

कुछ विस्मित-सा कुतूहल
समा गया मेरे भीतर.
स्वयं को देखा -
तुम्हारी निर्निमेष मुग्ध चितवन ,
चिर-पुनर्नवता रच गई मुझमें !

*

बुधवार, 11 जून 2014

गंगा को बहने दो अविरल.

*
निर्मल-निर्मल ,उज्ज्वल-उज्ज्वल ,गंगा को बहने दो अविरल !
गिरिराज हिमालय की कन्या , नित पुण्यमयी प्रातःवंद्या,
यह त्रिविध ताप से व्यथित  धरा ,उतरी आ कर बन ऋतंभरा.
अंबर-चुंबी शृंगों से चल ,भर  नभ-पथ का पावन हिम-जल !
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जैसे कि फले हों सुव्रत-सुकृत,हम ऋणी ,कृतज्ञ ,हुए उपकृत ,
गिरिमालाओं से अभिषिक्ता ,वन-भू की दिव्यौषधि सिक्ता .
शत धाराओं से भुज भर मिल , कर रही प्रवाहित नेह तरल !
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जो हरती रहीं कलुष-कल्मष ,इन लहरों में अब घुले न विष ,
तीरथ हैं सुरसरि के दो तट , इस ठौर न हों अब पाप  प्रकट.

श्रद्धा-विश्वास पहरुए हों , आस्थामय कर्म बने प्रतिफल !
 *
अपने तन-मन की विकृति कथा ,दूषणमय जीवन की जड़ता , 
इस तट मत लाना बंधु, कभी, जल में न घुलें संचित विष-सी,
चिर रहे प्रवाहित पावन जल, गंगा को बहने दो निर्मल !
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निर्मल-निर्मल,उज्ज्वल-उज्ज्वल,बहने दो जल-धारा अविरल !
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