रविवार, 27 जनवरी 2013

तब गूँजे अपना जयकारा !


 *
शीश चढ़ा कर बलिवेदी पर यज्ञकंड में आहुति बन कर,
वीर शहीद कर गये अपनी,जन्मभूमि पर प्राण निछावर .
तब भयभीत फिरंगी भागा लेकिन डाल गया जो फंदा,
देश तोड़ कर गया कुचक्री जो था सदा नियत का मंदा
 जुड़ें बिखरती कड़ियाँ फिर से, ये ही अब व्रत रहे हमारा !
*
कैसे कैसे लोग  मूँग दल रहे हैं माँ की छाती पर ,
अपना उल्लू साध रहे, भाषा संस्कृति सब दाँव लगा कर .
कुछ घर में ही ,कुछ बाहर जा बैठे अपनी घात लगाए .
 खड़ा पीठ में छुरा भोंकने कोई हाथ-पाँव फैलाए.!
हम अपनी सामर्थ्य दिखा कर स्वयं करें अपना निपटारा !
*
कायर बने ओढ़ कर फटा लबादा वही अहिंसावाला ,
अपने प्रहरी झोंक, तापते दुश्मन की चेताई ज्वाला .
 सबको उत्तर देने का दम ,स्वाभिमान से रहने का प्रण ,
वही करें नेतृत्व राष्ट्र का स्वच्छ पारदर्शी  जिनके मन .
स्वार्थ और संकीर्ण वृत्ति, निर्णीत न करे विधान हमारा !
*
 कहीं अस्मिता अपनी गुम न जाय इस फैली चकाचौंध में
 जागो मेरे देश वासियों ,शामिल मत हो  अंध दौड़ में
जीवन के सच खोज-शोध  भंडार भरा असली निधियों से .
कहीं न बिक जाये गैरों के हाथ ,जुड़ा था जो सदियों से
 जन-जन जागो ,दमक उठे जो धुँधलाया अपना ध्रुव-तारा !
तब गूँजे अपना जयकारा !
*

मंगलवार, 15 जनवरी 2013

दुर्गम्या -


*
कोई तोहमत जड़ दो औरत पर ,
कौन है रोकनेवाला !
कर दो चरित्र हत्या ,
या धर दो कोई आरोप !
हटा दो रास्ते से !
*
हाँ ,वे दौड़ा रहे हैं सड़क पर
'टोनही है यह ',
'नज़र गड़ा चूस लेती है बच्चों का ख़ून!'
उछल-उछल कर पत्थर फेंकते ,
चीख़ते ,पीछे भाग रहे हैं !
खेल रहे हैं अपना खेल !
*
अकेली औरत ,
भागेगी कहाँ भीड़ से !
चोटों से छलकता खून
प्यासे हैं लोग !
सहने की सीमा पार ,
जिजीविषा भभक उठी खा-खा कर वार !
*
भागी नहीं ,चीखी नहीं !
धिक्कार भरी दृष्टि डालती
सीधी खड़ी हो गई
मुख तमतमाया क्रोध-विकृत !
आँखें जल उठीं दप्-दप् !
लौट पड़ी वह !
*
नीचे झुकी, उठा लिया वही पत्थर
आघात जिसका उछाल रहा था रक्त!
भरी आक्रोश
तान कर मारा पीछा करतों पर !
'हाय रे ,चीत्कार उठा ,
मार डाला रे !
भीड़ हतबुद्ध, भयभीत !
*
और दूसरा पत्थर उठाये दौड़ी!
अब पीछा वह कर रही थी ,
भाग रहे थे लोग !
फिर फेंका उसने ,घुमा कर पूरे वेग से !
फिर चीख उटी !
उठाया एक और !
*
भयभीत, भाग रही हैं भीड़ !
कर रही है पीछा
अट्टहास करते हुये
प्रचंड चंडिका !
*
धज्जियां कर डालीं थीं वस्त्रों की
उन लोगों ने ,
नारी-तन बेग़ैरत करने को !
सारी लज्जा दे मारी उन्हीं पर !
पशुओं से क्या लाज ?
ये बातें अब बे-मानी थीं !
*
दौड़ रही है ,निर्भय उनके पीछे ,हाथ में पत्थर लिये
जान लेकर भाग रहे हैं लोग !
भीत ,त्रस्त ,
सब के सब ,एक साथ गिरते-पड़ते ,
अँधाधुंध इधर-उधर !
तितर-बितर !
थूक दिया उसने उन कायरों की पीठ पर !
*
और
श्लथ ,वेदना - विकृत,
रक्त ओढ़े दिगंबरी ,
बैठ गई वहीं धरती पर !
पता नहीं कितनी देर !
फिर उठी , चल दी एक ओर !
*
अगले दिन खोज पड़ी
कहां गई चण्डी ?
कहाँ गायब हो गई?
पूछ रहे थे एक दूसरे से ।
कहीं नहीं थी वह !
*
उधऱ कुयें में उतरा आया मृत शरीर !
दिगंबरा चण्डी को वहन कर सक जो
वहां कोई शिव नहीं था !
सब शव थे !
*

[एक मनोरंजन: एक कौतुक !
*
स्त्री के नाक-कान काटते योद्धाओं की जयकार !
 साल दर साल मंचन ,रक्त बहते तन की  भयंकर पीड़ा से  रोमांचित  भीड़ !
मानी हुई बात  -औरत है, अवगुन आठ सदा उर रहहीं -सतत ताड़ना की अधिकारी ! 
शताब्दियाँ साक्षी हैं इस लीला की !]
- प्रतिभा सक्सेना.
/***
एक पूर्व टिप्पणी -

  1. 'टोनही'......mm...shayad tona totka karne waali hogi....main matlab confirm kar longi kahin se..:)
    Anyways.....
    bahut aam sa drishya hai..bhaarteeya parivesh mein aksar dekhne mil jata hai.....magar kuch cheezein behad khaas lagin......

    सहने की सीमा पार ,
    जिजीविषा भभक उठी खा-खा कर वार

    bahut hi achha laga ye padhkar....bahut zyada anyaay insaan ko maarta kam hai....zyadatr wo unko unki apni shakti pehchanne ki kshamta pradaan karta hai.......ek thresh hold level k baad har naari ablaa se maa kaali ban hi jaati hai.........jeejivisha ka bhabhak uthna...bahut achhi pankti likhi aapne.....

    सारी लज्जा दे मारी उन्हीं पर !
    पशुओं से क्या लाज ?

    lajja de marna...bahut achhi line...

    वहां कोई शिव नहीं था !
    सब शव थे !

    ghazab ka samapan....literally yahi shabd likle the kavita ka ant padhkar....

    ye shiv aur shav ka taalmel yaad rahega Ma'am..
    प्रत्‍युत्तर देंहटाएं


शुक्रवार, 11 जनवरी 2013

मुझे मालूम है ...

शार्दुला जी की एक कविता -जैसे  'तुमुल कोलाहल-कलह में हृदय की बात' कह दी हो किसी ने.
आप सब से बाँटने का लोभ समेट नहीं सकी -
*
मुझे मालूम है नाराज़ हो तुम
*
मुझे मालूम है नाराज़ हो तुम मेरी गलती है,
तुम्हें मैंने बताया कब, मुझे प्यारे नमक से हो .
फटे आँचल के कोने में बंधा दुर्लभ रूप्पैया तुम,
गली में गेंद जिसके हाथ आई उस लपक से हो !
*
बताया ये भी न  मैंने कि हरदम तुमको जीती हूँ,
तुम्हारे गीत लब पे बैठते, चढ़ते, पसरते हैं.
तुम्हारे सुख की गर्मी, दीप मन के बाल जाती है ,
तुम्हारे दुःख की ठंडक से मेरे लम्हे सिहरते हैं!
*
उमर की सीढियां चढ़ते, चुनौती तय नई करते
थका मन पीठ अपनी थपथपाना भूल जाता है ,
नहीं आयाम दूरी का कोई जब  बीच में अपने 
हो तुम कितने अहम्, तुमको बताना भूल जाता है !
*
- शार्दुला