मंगलवार, 19 जून 2012

अमरनाथ के हिम कपोत.

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जब नीलकंठ बोलें  ,मुंडमाल हिले-डोले, गिरिबाला  देख   चौंक चौंक जाये,
लगे एक-एक मुंड,किसी कथा का प्रसंग लिये  भेद कुछ समाये है, छिपाये .
बार-बार कोई बात, भूले सपन की सी याद मन- दुआरे की कुंडी बजाये  ,
कभी लागे मुस्काय, नैनन जतलाय़े, पहचानr लगे, याद नहीं आये .
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 पूछ बैठी माँ भवानी ,गिरि-शृंगोंकी रानी , मुंड काहे को पिरोय कंठ धारे ,
भूत प्रेत की जमात चले  पसुपति साथ ,यह कौन सा  सिंगार तुम सँवारे !
क्या बताऊं गिरि-कन्या ,मैं हूँ अमर अजन्मा किन्तु तेरी तो मरणशील काया ,
जन्म-जन्म रही मेरी ,अर्धअंग मे विराजी ,तेरा अमर प्रेम मैंने ही पाया .
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हर बार नया जन्म, हर बार नया रूप ,नई देह धार ,मेरी प्रिया आये ,
तेरे सारे ही शीष ,मैंने जतन से सँजोय राखे,  क्रम-क्रम  माल में सजाये .
माल  हिये से लगाय मैं  राखत हूँ गौरा, तोरी जनम-जनम प्रीत की निसानी,
ये  तेरी ही धरोहर लगाये हूँ हिये से ,बिन तेरे  जोग साधूँ,  शिवानी .
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 मेरी म़त्युमयी काया  , किन्तु प्रीत अविनाशी ,मुक्त करो जन्म-मृत्यु चक्र मेरा ,
करो देव, वह उपाय जासों तुम्हें छोड़ बार-बार जनम मरण न दे फेरा .
अमर-कथा चलो प्रिया ,तुम्हें आज मैं सुना दूँ चिर रहे जो  मन-भावनी ये काया ,
चलो कहीं एकान्त, जहाँ जीव  अनधिकारी बोल कानों से ना सुन पाया . 
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जहाँ हिमगिरि की शीत, बियाबान -सूनसान ,कोई पंखी भी पंख नहीं मारे ,
अति रम्य गुहा हिमगिरि  की पावन सुशीतल ,तहाँ गौरा संग शंकर सिधारे .
सावधान सब देखा कोई  जीवधारी न हो , कहीं सुन ले जो दुर्लभ कहानी .
और  अजर-अमर मनभावन अमल देह पा ले  न कोई भी  प्राणी .
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 मैं मगन सुनाऊँ , बस एक  इहै  चिन्ता तुम सबद -सबद ध्यान लगा, पाओ
  हुइ के  सचेत मन धारि सुने जा रहीं,  जताने को हुंकारा  दिये जाओ .
 पान करने लगीं गौरा वह  अमृतमयी वाणी ,शीश काँधे से पिय के टिकाये,
धरा- गगन को पावन बनाय बही जा रही  स्वर- धारा संभु गंग-सी बहाये .
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मंद थपकी लगाय निज नेह को जतावैं संभु , मगन भवानी नैन मूँदे ,
पाय अइस बिसराम तन अलस ,विलस मन , भीगि रहीं पाय रस बूँदें .
अमर कथा को प्रभाऊ,दुई कपोत अंड रहे तहाँ तामें जीव विकसि गये पूरे ,
 दुइ नान्ह-नान्ह बारे ,कान पड़े भेद सारे अइस जिये जइस अमरित सँचारे,
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अंड फोरि निकरि आये,  खुले नैन, चैन पाये ,  हुँहुँक हुँहूँक धुन गुहा में समाई 
जइस कोई हुँकारा भरे रुचि सों कथा को सुनि सोई धुनि कानन में आई .
आपै आप हुँकारा सुनि   गिरिजा हरषानी, बिन श्रम सुनै लाग उहै बानी .
 विसमय में ऊब-डूब कोऊ चमत्कार जानि मौन धारि बैठीं सुने  शिवानी .
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अनायास लगीं पलकें ,अइस  छाय गई  निंदिया ,सुनिबे  को भान डूबि गया सारा ,
हूँ-हुँहुँक् का हुँकारा ,गूंज रहा हर बारा ,बहे पावनी कहानी   की धारा .
पूरन कथा तहूँ   ,हुँकार धुनि छाई  गौरा   सोय रहीं  संभु चकियाने,
 सावक निहारि भेद जानि गये पसुपति ,पै सोचि परिनाम अकुलाने .
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 अनगिन बहाने होनहार हेतु होवत हैं, जौन रचि राखत विधाता ,
 पारावत दोउ अमरौती पाय जागे , कौन पुण्य को प्रभाव अज्ञाता .
 नित्य वे निवासी  सिवधाम के कपोत दुइ ,अमल-धवल वेष धारे ,
तीरथ के यात्री हरषि तिन्हें हेरत, प्रदक्षिणा-सी देत  नित सकारे  .
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गिरिजा की प्रीत बार-बार नवरूप लेइ हिये धरि संभु अविनासी .
हिमधवल कपोत अमर हुइगे  प्रसाद पाइ अमरनाथ धाम के निवासी .
ते ही  कपोत दोऊ ,आज लौं लगावत हैं अमरनाथ  की नित परिक्रमा ,
सरल सुभाव महादेव सह गौरी  को मनसा ध्यान लाये न किं जनः!
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- प्रतिभा.