मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

पूरा सच कबूलो


( कभी की लिखी  एक कविता आज  हाथ लग गई . प्रस्तुत है -)
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सच कहो  ,
या फिर  कहीं जा मुँह छिपाओ,
अब न मिथ्या वचन ,
पूरा सच कबूलो ,
अन्यथा  जा कृष्ण -विवरों में समाओ !
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 झूठ ठाने ,पग धरे
 अक्षांश वह जड़ से मिटा दूँ ,
उस धरा की सभी सत्ता सिंधु के जल  में डुबा दूँ  ,
एक कंदुक सा उछालूँ अंतरिक्षों के विवर में
लुढ़क टकरा जायँ ग्रह-नक्षत्र वह ठोकर लगाऊं .
रेख विषुवत् मोड़, दोनों मकर-कर्क समेट धर दूँ    
खोल डालूँ ऊष्ण-हिम कटिबंध दोनों ,
इन खड़ी देशान्तरों  को पकड़ कर दे दूँ  झिंझोड़े
 चीर दूँ  छाती गगन की सिंधु के जल को उँडेलूँ
सूर्य की पलकें झपें ,शशि की बिखर जाएं  कलाएँ .
वह कहो जो सत्य है ,
अब कुछ न देखो वाम-दायें !
*
यह दिशाओँ का विभाजन  भूल जाओ!
इस  क्षितिज के पार
सिर नीचे झुकाये ,
सच कबूलो ,
अन्यथा , मुख को छिपा
 तम -कूप   में जा  डूब जाओ !
*