शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

सायुज्य

*


लौट जाएँगे सभी आरोप ,

मुझको छू न पा ,

उस छोर मँडराते हुए .

तुम निरे आवेश के पशु

तप्त भाषा घुट तुम्हीं में ,

बर्फ़ बन घुल

दे विफलता बोध.

*

बहुत अस्थिर ,

बदलते पल-पल

बहुत अक्षम ,बिचारे ,

जब न संयम ,

धुआँ बन कर,

घेर लेंगे ये सुलगते हर्फ़

क्या करेंगे तर्क सारे अनविचारे.

*

सिर्फ़ मनःविलास की ललकार .

अहंकारों की उपज जो

चाहता स्वामित्व का अधिकार ,

रे मदान्ध ,किसे दिखाता रोष

मैं नहीं लाचार .

है मुझे यह युद्ध भी स्वीकार .

*

झेलती प्रतिघात मैं

सब बूझ लूँगी ,

सिर पटकता जो विवश आक्रोश ,

खूँदते धरती विवश

डिडकारते ,भरते कराहें

बल दिखा धिक्कारता

तेरी विमति की मंडली से जूझ लूंगी .

*

और ,दूषण लगाना आसान कितना,

आत्म मुग्ध,स्व-वंदना के राग गाकर

अरे दुर्मद,

कौन से पट को हटाना चाहता तू .

देख पाए किस तरह

चिर- आवृता मूला प्रकृति मैं

दृष्टि का विस्फोट ,अंध अशील तू

तत्क्षण विवृत हो पंचभूतों में मिलेगा

*

देख रुक कर -

और पी लूँ मद कि कि हों रक्ताभ लोचन ,

हो कि यह उन्माद गहरा ,और पी लूँ

और पी लूँ क्योंकि पशु पर वार करते ,

कहीं करुणा जाग कर धर दे न पहरा.

गमक जाए राग, आनन पर लपट सा ,

दे सकूँ बलि कर निरंश निपात पशु-तन

*

गरलपायी ,कामजित् भूतेश

मेरी साधना,

केवल सदा- शिव हेतु,

यह जन्मान्तरों तक व्रत पलेगा .

किस तरह हो शक्ति, पशुता को समर्पित ,

कराली भयदायिनी का

शिेवेतर उपचारणा के हेतु

यह अनु- क्रम चलेगा .

*

रूप से विस्मित-विमोहित ,

विभ्रमित-सा चाहता सामीप्य

तेरी लालसा पूरी करूँगी

अंततः हो कर सदय

सायुज्य दे सम्मुख धरूँगी

पक्ष हों प्रत्यक्ष दोनों

महिष-मानुष तू रहे

प्रत्यक्ष करता भूमिका,

दृष्टान्त-सा प्रस्तुत करूँगी

*

मंच की हर वेदिका पर

अर्धमानव- वपु धरे,

तेरा अहं बलिपशु बना,

प्रतिबद्ध हो.

तेजोमयी के साथ

तमसाकार अब प्रत्यक्ष हो .

*

निरूपण मेरा जहाँ ,

तू रह उपस्थित,

देख ले संसार ,मूला प्रकृति का ऋत.

मातृशक्ति समक्ष ,

लालायित ,विमोहित विवश नर पशु

तेजहत, असमर्थ होगा.

जहाँ मैं चिद्रूपिणी, ओ महिषमति

विद्रूप बन तू भी रहेगा .

*